शरीक ए आलम ए कैफ़ ओ सुरूर मैं भी था
कि रात जश्न में तेरे हुज़ूर मैं भी था,
अज़ीब वक़्त था दुनियाँ क़रीब थी मेरे
गज़ब ये था तेरे दामन से दूर मैं भी था,
गमो के घेरे में जब रक्स कर रही थी हयात
तमाश बीं की तरह बे शुऊर मैं भी था,
न रुकना राह में शर्त ए सफ़र में शामिल था
थकन से वरना बहुत चूर चूर मैं भी था,
उतर रहा था लहू किस बला का आँखों में
तेरे ख़याल में उस दम ज़रूर मैं भी था,
गुज़रते वक़्त ने पहरे बैठा दिए मुझ पर
खताएँ उनकी न थी बे क़सूर मैं भी था..!!