कटा न कोह ए अलम हम से कोहकन की तरह
कटा न कोह ए अलम हम से कोहकन की तरह बदल सका न ज़माना तेरे चलन की तरह,
कटा न कोह ए अलम हम से कोहकन की तरह बदल सका न ज़माना तेरे चलन की तरह,
हमारे हाल से कोई जो बा ख़बर रहता ख़याल उसका हमें भी तो उम्र भर रहता, जिसे भी
करता मैं अब किसी से कोई इल्तिमास क्या मरने का ग़म नहीं है तो जीने की आस क्या
चमन लहक के रह गया घटा मचल के रह गई तेरे बग़ैर ज़िंदगी की रुत बदल के रह
हर शेर से मेरे तेरा पैकर निकल आए मंज़र को हटा कर पस ए मंज़र निकल आए, ये
कुछ इस अदा से वो मेरे दिल ओ नज़र में रहा ब क़ैद ए होश भी मैं आलम
ख़बर नहीं कि सफ़र है कि है क़याम अभी तिलिस्म ए शहर में खोए हैं ख़ास ओ आम
अलबेली कामनी कि नशीली घड़ी है शाम सर मस्तियों की सेज पे नंगी पड़ी है शाम, बेकल किए
अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ
उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या मेरी हर बात बे असर