मेरे ख़्वाबों से ओझल उस का चेहरा हो गया है
मैं ऐसा चाहता कब था पर ऐसा हो गया है,
तअ’ल्लुक़ अब यहाँ कम है मुलाक़ातें ज़ियादा
हुजूम ए शहर में हर शख़्स तन्हा हो गया है,
तेरी तकमील की ख़्वाहिश तो पूरी हो न पाई
मगर एक शख़्स मुझ में भी अधूरा हो गया है,
जो बाग़ ए आरज़ू था अब वही है दश्त ए वहशत
ये दिल क्या होने वाला था मगर क्या हो गया है ?
मैं समझा था सियेगी आगही चाक ए जुनूँ को
मगर ये ज़ख़्म तो पहले से गहरा हो गया है,
मैं तुझ से साथ भी तो उम्र भर का चाहता था
सो अब तुझ से गिला भी उम्र भर का हो गया है,
तेरे आने से आया कौन सा ऐसा तग़य्युर
फ़क़त तर्क ए मरासिम का मुदावा हो गया है,
मेरा आलम अगर पूछें तो उन से अर्ज़ करना
कि जैसा आप फ़रमाते थे वैसा हो गया है,
मैं क्या था और क्या हूँ और क्या होना है मुझ को
मेरा होना तो जैसे एक तमाशा हो गया है,
यक़ीनन हम ने आपस में कोई वा’दा किया था
मगर उस गुफ़्तुगू को एक अर्सा हो गया है,
अगरचे दस्तरस में आगही है सारी दुनिया
मगर दिल की तरफ़ भी एक दर वा हो गया है,
ये बेचैनी हमेशा से मिरी फ़ितरत है लेकिन
ब क़द्र ए उम्र इस में कुछ इज़ाफ़ा हो गया है,
मुझे हर सुब्ह याद आती है बचपन की वो आवाज़
चलो इरफ़ान उठ जाओ सवेरा हो गया है..!!
~इरफ़ान सत्तार


























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