हम एक रोज़ उस को भुलाने निकल गए

हम एक रोज़ उस को भुलाने निकल गए
जब आए लौट कर तो ज़माने निकल गए,

एक शख़्स जा रहा था हमारे ज़मीन से
हम आसमान सर पे उठाने निकल गए,

तू तो ख़मोश हो गया फिर हम गली गली
तेरी तरफ़ का शोर मचाने निकल गए,

जब जब हमारे हाथ में आए हमारे पाँव
उन की गली में ख़ाक उड़ाने निकल गए,

उस कमसुख़न ने आज बहुत खुल के बात की
मुफ़्लिस की झोपड़ी से ख़ज़ाने निकल गए,

बिल्कुल नई ज़बान थी उस के कलाम में
लेकिन हमारे कान पुराने निकल गए,

जब जब भी याद आईं तुम्हारी हथेलियाँ
हम दोस्तों से हाथ मिलाने निकल गए..!!

~इब्राहीम अली ज़ीशान

शर्मिंदगी में उम्र बसर कर रहे हैं हम

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