हर बज़्म में मौज़ू ए सुख़न दिल ज़दगाँ का
अब कौन है शीरीं है कि लैला है कि तुम हो ?
एक दर्द का फैला हुआ सहरा है कि मैं हूँ
एक मौज में आया हुआ दरिया है कि तुम हो ?
वो वक़्त न आए कि दिल ए ज़ार भी सोचे
इस शहर में तन्हा कोई हम सा है कि तुम हो ?
आबाद हम आशुफ़्ता सरों से नहीं मक़्तल
ये रस्म अभी शहर में ज़िंदा है कि तुम हो ?
ऐ जान ए फ़राज़ इतनी भी तौफ़ीक़ किसे थी
हम को ग़म ए हस्ती भी गवारा है कि तुम हो..!!
~अहमद फ़राज़

























