हैरान हूँ नसीब की बख़्शिश को देख कर
साए से अपने धूप में महरूम हैं शजर,
क़ब्ज़े में अपने होती फ़ज़ाओं की मम्लिकत
उड़ते अगर हवाओं की रफ़्तार देख कर,
उन से मिले तो ख़ुद से भी पहचान हो गई
वर्ना हम अपनी ज़ात से अब तक थे बे ख़बर,
हर टुकड़े में बस एक ही तस्वीर पाओगे
देखो तो अपनी ज़ात का आईना तोड़ कर,
नश्तर से लोग करते हैं ज़ख़्म ए जिगर रफ़ू
ये रस्म तो कहाँ से चली मेरे चारागर,
अंजुम ज़मीं से जिन की जड़ें रिश्ता तोड़ लें
देखा है सब ने सूख के गिरते हैं वो शजर..!!
~अशफ़ाक़ अंजुम

























