गुलामी में काम आती शमशीरें न तदबीरें

गुलामी में काम आती शमशीरें न तदबीरें
जो हो ज़ौक ए यकीं पैदा तो कट जाती हैं जंज़ीरें,

कोई अन्दाज़ा कर सकता है उसके ज़ोरे बाज़ू का
निगाह मरद ए मोमिन से बदल जाती हैं तकदीरें,

विलायत, पादशाही, इलम, अशया की जहांगीरी
यह सब कया हैं फ़कत एक नुकता ए इमां की तफ़सीरें,

बराहीमी नज़र पैदा मगर बड़ी मुश्किल से होती है
हवस छुप छुप के सीने में बना लेती है तस्वीरें,

तमीज़ बन्द ओ आका, फ़साद आदमीयत है
हज़र ए चीरा ए दासतां सख़त हैं फ़ितरत की ताज़ीरें,

हकीकत एक है हर शै की ख़ाकी हो के नूरी हो
लहू खुरशीद का टपके, अगर ज़र्रे का दिल चीरें,

यकीं मुहकम, अमल पैहम, मोहब्बत फ़ातहे आलम
जेहाद ए ज़िन्दगानी में यह मरदों की शमशीरें..!!

~अल्लामा इक़बाल


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