दीदार माहताब का शब भर नहीं हुआ
रौशन मेंरे नसीब का अख़्तर नहीं हुआ,
हर दम वही हुआ न थी उम्मीद जिसकी कुछ
होना जो लाज़मी था वो अक्सर नहीं हुआ,
क्या फ़ाएदा चराग़ जलाने से रोज़ रोज़
किरदार ही मेंरा जो मुनव्वर नहीं हुआ,
अशआर की कुछ आज भी आमद है हो रही
ये ज़ह्न मेरा आज भी बंजर नहीं हुआ,
बरसों से कितने दरिया हैं इसमें समा रहे
मीठा मगर अभी भी समुंदर नहीं हुआ,
कोशिश तो उस ने ख़ूब की जी जान से मगर
पंजों के बल भी वो मेरे हम सर नहीं हुआ,
ऐ ज़िंदगी कहूँ मैं तुझे कैसे अलविदा
तुझ से अभी हिसाब बराबर नहीं हुआ,
अगयात ग़म न कर हैं अगर तुझ में ख़ामियाँ
दुनिया में कोई शख़्स भी यकसर नहीं हुआ..!!
~अजय अज्ञात

























