गुलाबी होंठों पे मुस्कराहट
गुलाबी होंठों पे मुस्कराहट सजा के मिलते तो बात बनती, वो चाँद चेहरे से काली ज़ुल्फें हटा के
Gazals
गुलाबी होंठों पे मुस्कराहट सजा के मिलते तो बात बनती, वो चाँद चेहरे से काली ज़ुल्फें हटा के
मेरे नसीब का लिखा बदल भी सकता था वो चाहता तो मेंरे साथ चल भी सकता था, ये
लोग कहते हैं ज़माने में मुहब्बत कम है ये अगर सच है तो इस में हकीक़त कम है,
कुछ ग़म ए जानाँ कुछ ग़म ए दौराँ दोनों मेरी ज़ात के नाम एक ग़ज़ल मंसूब है उससे
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है, बा
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल ए यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता, तेरे
आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा, बेवक़्त अगर
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक, दाम
कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे,
गूंगी हो गई आज कुछ ज़ुबान कहते कहते हिचकिचा गया मैं ख़ुद को मुसलमान कहते कहते, ये बात