दो चार क्या हैं सारे ज़माने के बावजूद
दो चार क्या हैं सारे ज़माने के बावजूद हम मिट नहीं सकेंगे मिटाने के बावजूद, ये राज़ काश
Political Poetry
दो चार क्या हैं सारे ज़माने के बावजूद हम मिट नहीं सकेंगे मिटाने के बावजूद, ये राज़ काश
बड़ा बेशर्म ज़ालिम है, बड़ी बेहिस फ़ितरत है उसको कहाँ पता हया क्या ? क्या शराफ़त है, हमें
समंदरों में हमारा निशान फैला है पलट के देख मुए आसमान फैला है, मुक़ाबला है ख़ुराफ़ात का अँधेरों
दुनिया की रिवायात से बेगाना नहीं हूँ छेड़ो न मुझे मैं कोई दीवाना नहीं हूँ, इस कसरत ए
जंग जितनी हो सके दुश्वार होनी चाहिए जीत हासिल हो तो लज़्ज़तदार होनी चाहिए, एक आशिक़ कल सलामत
जब इक्कीस बरस गुज़रे आज़ादी ए कामिल को तब जा के कहीं हमको ‘ग़ालिब’ का ख़याल आया, तुर्बत
सूरमाओं को सर ए आम से डर लगता है अब इंक़लाब को अवाम से डर लगता है, हमीं
इलाज ए ज़ख़्म ए दिल होता है ग़मख़्वारी भी होती है मगर मक़्तल की मेरे ख़ूँ से गुलकारी
दुनियाँ में शातिर नहीं अब शरीफ़ लटकते है अब सच्चो की बात छोड़ो वो तो सर पटकते है,
रंग ए नफ़रत तेरे दिल से उतरता है कभी ? एक रवैया है मुरव्वत, उसे बरता है कभी