अफ़सोस तुम्हें कार के शीशे का हुआ है
अफ़सोस तुम्हें कार के शीशे का हुआ है परवाह नहीं एक माँ का जो दिल टूट गया है,
Occassional Poetry
अफ़सोस तुम्हें कार के शीशे का हुआ है परवाह नहीं एक माँ का जो दिल टूट गया है,
ये किस रश्क ए मसीहा का मकाँ है ज़मीं याँ की चहारुम आसमाँ है, ख़ुदा पिन्हाँ है आलम
हिज़्र के मौसम में ये बारिश का बरसना कैसा ? एक सहरा में समन्दर का गुज़रना कैसा ?
ज़ुल्फ़, अँगड़ाई, तबस्सुम, चाँद, आईना, गुलाब भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन सब का शबाब, पेट के
तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है सीना किस का है मेरी जान जिगर किस का
चाँद है ज़ेर ए क़दम सूरज खिलौना हो गया हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया,
क्यूँ पत्थर को दिल में बसाए बैठे हो ? वो अपना था ही नहीं जिसे अपना बनाए बैठे
आज सीलिंग फैन से लटकी हुई है ये मुहब्बत किस कदर भटकी हुई है, गैरो के कंधो पर
ढूँढ़ते क्या हो इन आँखों में कहानी मेरी ख़ुद में गुम रहना तो आदत है पुरानी मेरी, भीड़
भूख के एहसास को शेर ओ सुख़न तक ले चलो या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले