सच बोलने के तौर तरीक़े नहीं रहे
सच बोलने के तौर तरीक़े नहीं रहे पत्थर बहुत हैं शहर में शीशे नहीं रहे, वैसे तो हम
Occassional Poetry
सच बोलने के तौर तरीक़े नहीं रहे पत्थर बहुत हैं शहर में शीशे नहीं रहे, वैसे तो हम
एक ही धरती हम सब का घर जितना तेरा उतना मेरा दुख सुख का ये जंतर मंतर जितना
वो शख़्स कि मैं जिस से मोहब्बत नहीं करता हँसता है मुझे देख के नफ़रत नहीं करता, पकड़ा
वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे मैं तुझ को भूल के ज़िंदा रहूँ
उसे मना कर ग़ुरूर उस का बढ़ा न देना वो सामने आए भी तो उस को सदा न
नेक लोगो में मुझे नेक गिना जाता है गुनाहगार गुनाहगार समझते है मुझे मैं तो ख़ुद बाज़ार में
तूने देखा है कभी एक नज़र शाम के बाद कितने चुपचाप से लगते हैं शजर शाम के बाद,
अनोखी वज़अ है सारे ज़माने से निराले हैं ये आशिक कौन सी बस्ती के या रब ! रहने
अजब वायज़ की दींदारी है या रब ! अदावत है इसे सारे जहाँ से, कोईअब तक न यह
दरोग़ के इम्तिहाँ कदे में सदा यही कारोबार होगा जो बढ़ के ताईद ए हक़ करेगा वही सज़ावार