दुख दर्द के मारों से मेरा ज़िक्र न करना
दुख दर्द के मारों से मेरा ज़िक्र न करना घर जाऊँ तो यारों से मेरा ज़िक्र न करना,
Occassional Poetry
दुख दर्द के मारों से मेरा ज़िक्र न करना घर जाऊँ तो यारों से मेरा ज़िक्र न करना,
दयार ए नूर में तीरा शबों का साथी हो कोई तो हो जो मेरी वहशतों का साथी हो,
बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मेरा है आँखें भी मेरी ख़्वाब ए परेशाँ भी मेरा है, जो
अपनी तस्वीर को आँखों से लगाता क्या है एक नज़र मेरी तरफ़ भी तेरा जाता क्या है ?
अहल ए मोहब्बत की मजबूरी बढ़ती जाती है मिट्टी से गुलाब की दूरी बढ़ती जाती है, मेहराबों से
अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया कि एक उम्र चले और घर नहीं आया, उस एक
अज़ाब ए वहशत ए जाँ का सिला न माँगे कोई नए सफ़र के लिए रास्ता न माँगे कोई,
मज़लूमों के हक़ मे अब आवाज़ उठाये कौन ? जल रही बस्तियाँ,आह ओ सोग मनाये कौन ? कौन
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं, हो रहा हूँ मैं किस तरह
ज़ुल्म की हद ए इंतेहा को मिटाने का वक़्त है अब मज़लूमों का साथ निभाने का वक़्त है,