एक मैं और इतने लाखों सिलसिलों के सामने
एक मैं और इतने लाखों सिलसिलों के सामनेएक सौत-ए-गुंग जैसे गुम्बदों के सामने, मिटते जाते नक़्श दूद-ए-दम की
Life Poetry
एक मैं और इतने लाखों सिलसिलों के सामनेएक सौत-ए-गुंग जैसे गुम्बदों के सामने, मिटते जाते नक़्श दूद-ए-दम की
इक मसाफ़त पाँव शल करती हुई सी ख़्वाब मेंइक सफ़र गहरा मुसलसल ज़र्दी-ए-महताब में, तेज़ है बू-ए-शगूफ़ा हाए
एक नगर के नक़्श भुला दूँ एक नगर ईजाद करूँएक तरफ़ ख़ामोशी कर दूँ एक तरफ़ आबाद करूँ,
एक तेज़ तीर था कि लगा और निकल गयामारी जो चीख़ रेल ने जंगल दहल गया, सोया हुआ
ग़ैरों से मिल के ही सही बे-बाक तो हुआबारे वो शोख़ पहले से चालाक तो हुआ, जी ख़ुश
चादर की इज्ज़त करता हूँऔर परदे को मानता हूँ, हर परदा परदा नहीं होताइतना मैं भी जानता हूँ,
उसे कहना मुहब्बत दिल के ताले तोड़ देती हैउसे कहना मुहब्बत दो दिलो को जोड़ देती है, उसे
कोई तो फूल खिलाए दुआ के लहज़े मेंअज़ब तरह की घुटन है हवा के लहज़े में, ये वक़्त
ख़बर क्या थी कि ऐसे अज़ाब उतरेंगेजो होंगे बाँझ वो आँखों में ख़्वाब उतरेंगे, सजेंगे ज़िस्म पे कुछ
अब जो लौटे हो इतने सालों मेंधूप उतरी हुई है बालों में, तुम मिरी आँख के समुंदर मेंतुम