सभी कहें मेरे ग़मख़्वार के अलावा भी
सभी कहें मेरे ग़मख़्वार के अलावा भी कोई तो बात करूँ यार के अलावा भी, बहुत से ऐसे
Ahmad Faraz
सभी कहें मेरे ग़मख़्वार के अलावा भी कोई तो बात करूँ यार के अलावा भी, बहुत से ऐसे
ग़ैरत ए इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थी वो भी दिन थे कि रह ओ रस्म ए वफ़ा
दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों, आँखों
हर एक बात न क्यूँ ज़हर सी हमारी लगे कि हमको दस्त ए ज़माना से ज़ख़्मकारी लगे, उदासियाँ
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं लाख समझाया कि इस महफ़िल में अब जाना नहीं, ख़ुद
क्या ऐसे कम सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे जो मुस्तक़िल सुकूत से दिल को लहू करे, अब तो
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रखा है मगर चराग़ ने लौ को सँभाल रखा है, मोहब्बतों में तो
जुज़ तेरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे तू कहाँ है मगर ऐ दोस्त पुराने मेरे ?
गिले फ़ुज़ूल थे अहद ए वफ़ा के होते हुए सो चुप रहा सितम ए नारवां के होते हुए,
थक गया है मुसलसल सफ़र उदासी का और अब भी है मेरे शाने पे सर उदासी का, वो