बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही क़िस्सा निकल आया

बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही क़िस्सा निकल आया
मेरे दुख से किसी आवाज़ का रिश्ता निकल आया,

वो सर से पाँव तक जैसे सुलगती शाम का मंज़र
ये किस जादू की बस्ती में दिल ए तन्हा निकल आया,

जिन आँखों की उदासी में बयाबाँ साँस लेते हैं
उन्हीं की याद में नग़्मों का ये दरिया निकल आया,

सुलगते दिल के आँगन में हुई ख़्वाबों की फिर बारिश
कहीं कोंपल महक उठी कहीं पत्ता निकल आया,

पिघल उठता है एक एक लफ़्ज़ जिन होंठों की हिद्दत से
मैं उन की आँच पी कर और भी सच्चा निकल आया,

गुमाँ था ज़िंदगी बेसम्त ओ बेमंज़िल बयाबाँ है
मगर एक नाम पर फूलों भरा रस्ता निकल आया..!!

~बशर नवाज़

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