ये बात उन की तबीअत पे बार गुज़री है
कि ज़िंदगी मेरी क्यों ख़ुशगवार गुज़री है ?
ख़ुशी से ज़िंदगी ए ग़म गुज़ारने वालो
ख़िज़ाँ तुम्हारे ही दम से बहार गुज़री है,
नहीं उठाए हैं अपनों के भी कभी एहसाँ
हज़ार शुक्र कि बेगानावार गुज़री है,
दिल ए ग़रीब को घर का हुआ न चैन नसीब
इसे तो उम्र सर ए रहगुज़ार गुज़री है,
नशेमन अपना है फिर बर्क़ ओ बाद से सरशार
नई बहार भी क्या साज़गार गुज़री है,
कोई मसर्रत ए लज़्ज़त मुझे न दर्द का ग़म
मेरी तो ज़ीस्त ही मस्तानावार गुज़री है,
ये सादगी तो ज़रा देखिए वो पूछते हैं
कि ज़िंदगी तेरी क्यों बेक़रार गुज़री है ?
मैं अपने दावा ए उल्फ़त से आज बाज़ आया
गुज़र गई है मगर शर्मसार गुज़री है..!!
~ए. डी. अज़हर

























