मैं अपना नाम तेरे जिस्म पर लिखा देखूँ

मैं अपना नाम तेरे जिस्म पर लिखा देखूँ
दिखाई देगा अभी बत्तियाँ बुझा देखूँ,

फिर उस को पाऊँ मेरा इंतिज़ार करते हुए
फिर उस मकान का दरवाज़ा अधखुला देखूँ,

घटाएँ आएँ तो घर घर को डूबता पाऊँ
हवा चले तो हर एक पेड़ को गिरा देखूँ,

किताब खोलूँ तो हर्फ़ों में खलबली मच जाए
क़लम उठाऊँ तो काग़ज़ को फैलता देखूँ,

उतार फेंकूँ बदन से फटी पुरानी क़मीज
बदन क़मीज से बढ़ कर कटा फटा देखूँ,

वहीं कहीं न पड़ी हो तमन्ना जीने की
फिर एक बार उन्हीं जंगलों में जा देखूँ,

वो रोज़ शाम को अल्वी इधर से जाती है
तो क्या मैं आज उसे अपने घर बुला देखूँ..??

~मोहम्मद अल्वी

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