जज़्बात का ख़ामोश असर देख रहा हूँ

जज़्बात का ख़ामोश असर देख रहा हूँ
बेचैन है दिल आँख को तर देख रहा हूँ,

ख़ाकिस्तर ए परवाना है बुझती हुई शमएँ
रंगीन मोहब्बत की सहर देख रहा हूँ,

मौहूम हुआ जाता है अब मक़्सद ए हस्ती
बातिल को हक़ीक़त पे ज़बर देख रहा हूँ,

छाए हैं कुछ इस तरह मेंरे दीदा ओ दिल पर
हर सम्त वही हैं मैं जिधर देख रहा हूँ,

मंज़िल का पता है न मक़ामात सफ़र का
तैयार है अब रख़्त ए सफ़र देख रहा हूँ,

जिस राह से गुज़रे थे मोहब्बत के मुसाफ़िर
सुनसान वही राहगुज़र देख रहा हूँ,

ऐ मौज बला ख़ेज़ है दरिया ए मोहब्बत
तूफ़ान का आलम है जिधर देख रहा हूँ..!!

~मोज फ़तेहगढ़ी


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