नज़रों का मोहब्बत भरा पैग़ाम बहुत है
मजबूर ए वफ़ा के लिए इनआम बहुत है,
कुछ बादा ओ साग़र की ज़रूरत नहीं मुझ को
आँखों से छलकती मय ए गुलफ़ाम बहुत है,
क्या हाल हो क्या जाने शब ए ग़म की सहर का
बेताबी ए दिल आज सर ए शाम बहुत है,
तौहीन ए मोहब्बत हैं मोहब्बत में ये शिकवे
लगता है अभी हुस्न ए तलब ख़ाम बहुत है,
बेवजह मुझे बेवफ़ा कहते तो हो लेकिन
तुम पर भी इसी क़िस्म का इल्ज़ाम बहुत है,
नादान रह ए इश्क़ को आसान न समझें
इस राह में कठिनाई ब हर गाम बहुत है,
इस शौक़ अदाओं को कोई कुछ नहीं कहता
चर्चा मेंरी उल्फ़त का सर ए आम बहुत है,
कुछ आ ही गया दोस्त का दुश्मन का सलीक़ा
एहसान तेरा गर्दिश ए अय्याम बहुत है,
अफ़्कार ए ज़माना कभी अफ़्कार ए मोहब्बत
है ज़िंदगी थोड़ी सी मगर काम बहुत है,
ऐ मौज सुकूँ बख़्श हैं अमवाज ए मोहब्बत
आग़ोश में तूफ़ाँ के भी आराम बहुत है..!!
~मोज फ़तेहगढ़ी

























