इशरत ए क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

इशरत ए क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना,

तुझ से क़िस्मत में मेंरी सूरत ए क़ुफ़्ल ए अबजद
था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना,

दिल हुआ कशमकश ए चारा ए ज़हमत में तमाम
मिट गया घिसने में इस उक़दे का वा हो जाना,

अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
इस क़दर दुश्मन ए अरबाब ए वफ़ा हो जाना,

ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब दम ए सर्द हुआ
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना,

दिल से मिटना तेरी अंगुश्त ए हिनाई का ख़याल
हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना,

है मुझे अब्र ए बहारी का बरस कर खुलना
रोते रोते ग़म ए फ़ुर्क़त में फ़ना हो जाना,

गर नहीं निकहत ए गुल को तेरे कूचे की हवस
क्यूँ है गर्द ए रह ए जौलान ए सबा हो जाना,

बख़्शे है जल्वा ए गुल ज़ौक़ ए तमाशा ग़ालिब
चश्म को चाहिए हर रंग में वा हो जाना,

ता कि तुझ पर खुले एजाज़ ए हवा ए सैक़ल
देख बरसात में सब्ज़ आइने का हो जाना ..!!

~मिर्ज़ा ग़ालिब

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