नज़र नज़र से मिला कर कलाम कर आया
ग़ुलाम शाह की नींदें हराम कर आया,
कई चराग़ हवा के असर में आए थे
मैं एक जुगनू को उन का इमाम कर आया,
ये किस की प्यास के छींटे पड़े हैं पानी पर
ये कौन जब्र का क़िस्सा तमाम कर आया,
उतरती शाम के साए बहुत मलूल से थे
सो एक शब मैं वहाँ भी क़याम कर आया,
ये और बात मेरे पाँव कट गए लेकिन
मैं शाहराह को एक राह ए आम कर आया,
करूँ कलाम किसी और से मैं क्या तारिक़
कि अपने लफ़्ज़ तो सब उस के नाम कर आया..!!
~तारिक़ क़मर