तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ

तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ
अब के किसी बेनाम से मौसम की तरह आ,

हर मर्तबा आता है मह ए नौ की तरह तू
इस बार ज़रा मेरी शब ए ग़म की तरह आ,

हल करने हैं मुझ को कई पेचीदा मसाइल
ऐ जान ए वफ़ा गेसू ए पुरख़म की तरह आ,

ज़ख़्मों को गवारा नहीं यकरंगी ए हालात
नश्तर की तरह आ कभी मरहम की तरह आ,

नज़दीकी ओ दूरी की कशाकश को मिटा दे
इस जंग में तू सुल्ह के परचम की तरह आ,

माना कि मिरा घर तेरी जन्नत तो नहीं है
दुनिया में मेरी लग़्ज़िश ए आदम की तरह आ,

तू कुछ तो मेरे ज़ब्त ए मोहब्बत का सिला दे
हंगामा ए फ़ना दीदा ए पुरनम की तरह आ..!!

~फ़ना निज़ामी कानपुरी

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