दुआ का टूटा हुआ हर्फ़ सर्द आह में है
तेरी जुदाई का मंज़र अभी निगाह में है,
तेरे बदलने के बा वस्फ़ तुझ को चाहा है
ये एतिराफ़ भी शामिल मेंरे गुनाह में है,
अज़ाब देगा तो फिर मुझ को ख़्वाब भी देगा
मैं मुतमइन हूँ मेंरा दिल तेरी पनाह में है,
बिखर चुका है मगर मुस्कुरा के मिलता है
वो रख रखाव अभी मेरे कज कुलाह में है,
जिसे बहार के मेहमान ख़ाली छोड़ गए
वो एक मकान अभी तक मकीं की चाह में है,
यही वो दिन थे जब एक दूसरे को पाया था
हमारी सालगिरह ठीक अब के माह में है,
मैं बच भी जाऊँ तो तन्हाई मार डालेगी
मेंरे क़बीले का हर फ़र्द क़त्ल गाह में है..!!
~परवीन शाकिर