बख़्श दे कुछ तो एतिबार मुझे
प्यार से देख चश्म ए यार मुझे,
रात भी चाँद भी समुंदर भी
मिल गए कितने ग़म गुसार मुझे,
रौशनी और कुछ बढ़ा जाऊँ
सोज़ ए ग़म और भी निखार मुझे,
कुछ ही दिन में बहार आ जाती
और करना था इंतिज़ार मुझे,
देख दुनिया ये पैंतरे न बदल
देख शीशे में मत उतार मुझे,
आइने में नज़र नहीं आता
अपना चेहरा कभी कभार मुझे,
किस क़दर शोख़ हो के तकता था
रात बंद ए क़बा ए यार मुझे,
देख मैं साअत ए मसर्रत हूँ
इतनी उजलत से मत गुज़ार मुझे,
मरकब ए ख़ाक पर सवार हूँ मैं
देख ऐ शहर ए ज़र निगार मुझे,
रिज़्क ए मक़्सूम खा के जीना था
खा गई फ़िक्र ए रोज़गार मुझे..!!
~मजीद अख़्तर