तन्हा सफ़र में खुद को यूँ ही चलते देखा

तन्हा सफ़र में खुद को यूँ ही चलते देखा
भीड़ भरी दुनियाँ में खुद को संभलते देखा,

ना मंदिर की घंटी से दिल का है नाता
ना मस्जिद की अज़ान से कोई है वास्ता,

धर्म के पिंजरे में जज़्बात को जलते देखा
इंसान को इंसान से लड़ते झगड़ते देखा,

मैं तो एक परिंदा हूँ उड़ता हूँ आसमानों में
ना सरहद की रेखा है ना बंदिश उनवानों में,

ना हिंदू, ना मुस्लिम, ना कोई सिख कहाता
ना इसाई, ना जैन किसी मज़हब से न नाता,

मैं मजहब की जंजीरों से दूर ही रहता हूँ
बस खुले आसमानों में, आज़ाद मैं बहता हूँ,

जहाँ मन करे, वहीं मैं उड़ जाता हूँ
हर रंग, हर रूप में खुद को ही पाता हूँ,

ना पूजा, ना नमाज़ की कोई ज़रूरत है
मेरे लिए तो बस मोहब्बत ही इबादत है,

मैं एक परिंदा हूँ मेरी बस यही पहचान है
मेरा मज़हब इंसानियत मेरा धर्म उड़ान है..!!

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