हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है

हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
दुश्नाम तो नहीं है ये इकराम ही तो है,

करते हैं जिस पे तान कोई जुर्म तो नहीं
शौक़ ए फ़ुज़ूल ओ उल्फ़त ए नाकाम ही तो है,

दिल मुद्दई के हर्फ़ ए मलामत से शाद है
ऐ जान ए जाँ ये हर्फ़ तिरा नाम ही तो है,

दिल नाउम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है,

दस्त ए फ़लक में गर्दिश ए तक़दीर तो नहीं
दस्त ए फ़लक में गर्दिश ए अय्याम ही तो है,

आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो यार ए ख़ुश ख़िसाल सर ए बाम ही तो है,

भीगी है रात फ़ैज़ ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्त ए सरोद दर्द का हंगाम ही तो है..!!

~फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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