ये तेरी ख़ल्क़ नवाज़ी का तक़ाज़ा भी नहीं
कहीं दरिया है रवाँ और कहीं क़तरा भी नहीं,
अपने आक़ाओं के ऐबों को महासिन समझे
इतनी पाबंद ए अक़ीदत तो रेआया भी नहीं,
इख़्तियारात से हक़ तक हैं ज़बानी बातें
दस्तख़त क्या किसी काग़ज़ पे अँगूठा भी नहीं,
कोई इम्कान नहीं है किसी ख़ुशफ़हमी का
चारागर तुम हो तो फिर ज़ख़्म को भरना भी नहीं,
इश्तिहारात लगे हैं मेरी ख़ुशहाली के
और थाली में मेरी ख़ुश्क निवाला भी नहीं,
ये उजाला कोई साज़िश है ये जुगनू है फ़रेब
सुब्ह से पहले चराग़ों को बुझाना भी नहीं..!!
~शकील जमाली

























