रह रह के याद आती है उस शर्मसार की

रह रह के याद आती है उस शर्मसार की
बे इख़्तियारी देख मेरे इख़्तियार की,

डर है कि गिर न जाए मोहब्बत का आशियाँ
मिट्टी खिसक रही है मिरे एतिबार की,

मुरझा रहा है दिल में तेरी याद का दरख़्त
क्या धूप पड़ रही है तेरे इंतिज़ार की,

एक तुझ को देखना ही मेरा काम काज था
क्यों धज्जियाँ उड़ा दीं मेरे रोज़गार की,

वो शख़्स आ के मेरे महल्ले में बस गया
मुझ पर निगाह पड़ गई परवरदिगार की..!!

~इब्राहीम अली ज़ीशान

हम एक रोज़ उस को भुलाने निकल गए

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