न है बुतकदा की तलब मुझे न हरम के दर की तलाश है
न है बुतकदा की तलब मुझे न हरम के दर की तलाश है जहाँ लुट गया है सुकून
Sufi Poetry
न है बुतकदा की तलब मुझे न हरम के दर की तलाश है जहाँ लुट गया है सुकून
अब तो शहरों से ख़बर आती है दीवानों की कोई पहचान ही बाक़ी नहीं वीरानों की, अपनी पोशाक
कभी ख़ुद कभी औरो को हटाते रहिए बस यूँ ही रास्तो को सहल बनाते रहिए, कही उठ जाइए
दुनियाँ की बुलंदी के तलबगार नहीं हैं हम अहल ए ख़िरद तेरे परस्तार नहीं हैं, बरगद की तरह
ज़िन्दा है जब तक मुझे बस गुनगुनाने है क्यूँकि गीत तेरे नाम के बड़े ही सुहाने है, है
किस सिम्त चल पड़ी है खुदाई ऐ मेरे ख़ुदा नफ़रत ही दे रही है दिखाई ऐ मेरे ख़ुदा,
हम से तो किसी काम की बुनियाद न होवे जब तक कि उधर ही से कुछ इमदाद न
हम न निकहत हैं न गुल हैं जो महकते जावें आग की तरह जिधर जावें दहकते जावें, ऐ
नदी के पार उजाला दिखाई देता है मुझे ये ख़्वाब हमेशा दिखाई देता है, बरस रही हैं अक़ीदत
कुछ परिंदों को तो बस दो चार दाने चाहिए कुछ को लेकिन आसमानों के खज़ाने चाहिए, दोस्तों का