हम मुसाफ़िर यूँ ही मसरूफ़ ए सफ़र जाएँगे
हम मुसाफ़िर यूँ ही मसरूफ़ ए सफ़र जाएँगे बे निशाँ हो गए जब शहर तो घर जाएँगे, किस
Occassional Poetry
हम मुसाफ़िर यूँ ही मसरूफ़ ए सफ़र जाएँगे बे निशाँ हो गए जब शहर तो घर जाएँगे, किस
तेरी उम्मीद तेरा इंतिज़ार जब से है न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से
हर एक ने कहा क्यूँ तुझे आराम न आया सुनते रहे हम लब पे तेरा नाम न आया,
तेरे चेहरे की तरह और मेरे सीने की तरह मेरा हर शेर दमकता है नगीने की तरह, फूल
यूँ तो वो हर किसी से मिलती है हम से अपनी ख़ुशी से मिलती है, सेज महकी बदन
ज़बान ए ग़ैर से क्या शरह ए आरज़ू करते वो ख़ुद अगर कहीं मिलता तो गुफ़्तुगू करते, वो
ग़म ए दौराँ ने भी सीखे ग़म ए जानाँ के चलन वही सोची हुई चालें वही बे साख़्तापन,
फ़नकार ख़ुद न थी मेरे फ़न की शरीक थी वो रूह के सफ़र में बदन की शरीक थी,
तेरी तलाश में हर रहनुमा से बातें कीं ख़ला से रब्त बढ़ाया हवा से बातें कीं, कभी सितारों
अब जी हुदूद ए सूद ओ ज़ियाँ से गुज़र गया अच्छा वही रहा जो जवानी में मर गया,