कभी झूठे सहारे ग़म में रास आया…
कभी झूठे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते ये बादल उड़ के आते हैं मगर साया नहीं
Occassional Poetry
कभी झूठे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते ये बादल उड़ के आते हैं मगर साया नहीं
पैगम्बरों की राह पर चल कर न देखना या फिर चलो तो राह के पत्थर न देखना, पढ़ते
एक पल के लिए एक घड़ी के लिए वक़्त रुकता ही नहीं किसी के लिए, रात कितनी भी
गमों का लुत्फ़ उठाया है खुशी का जाम बाँधा है तलाश ए दर्द से मंज़िल का हर एक
आँख से टूट कर गिरी थी नींद वो जो मदहोश हो चुकी थी नींद, मेरी आँखों के क्यूँ
नक़ाब चेहरों पे सजाये हुए आ जाते है अपनी करतूत छुपाये हुए आ जाते है, घर निकले कोई
यूँ अपनी गज़लों में न जताता कि मोहब्बत क्या है गर मिलते तो कर के दिखाता कि मोहब्बत
आयत ए हिज्र पढ़ी और रिहाई पाई हमने दानिस्ता मुहब्बत में जुदाई पाई, जिस्म ओ इस्म था जो
लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे महसूस हो रही है ख़ुद अपनी कमी मुझे, देखो तुम
ख़ुशी ने मुझको ठुकराया है दर्द ओ गम ने पाला है गुलो ने बे रुखी की है तो