मैं शाख़ से उड़ा था सितारों की आस में
मैं शाख़ से उड़ा था सितारों की आस में मुरझा के आ गिरा हूँ मगर सर्द घास में,
Occassional Poetry
मैं शाख़ से उड़ा था सितारों की आस में मुरझा के आ गिरा हूँ मगर सर्द घास में,
तुझे कैसे इल्म न हो सका बड़ी दूर तक ये ख़बर गई तेरे शहर ही की ये शाएरा
क्या ? खज़ूर के पेड़ो में झुकाव आ गया ज़नाब ! लगता है शहर में चुनाव आ गया,
गुलामी में काम आती शमशीरें न तदबीरें जो हो ज़ौक ए यकीं पैदा तो कट जाती हैं जंज़ीरें,
लोग क्या ख़ूब वफ़ाओ का सिला देते है ज़िन्दगी के हर मोड़ पे ज़ख्म नया देते है, कैसे
दिल के हर दर्द ने अशआर में ढलना चाहा अपना पैराहन ए बे रंग बदलना चाहा, कोई अनजानी
जब छाई घटा लहराई धनक एक हुस्न ए मुकम्मल याद आया उन हाथों की मेहंदी याद आई उन
कोई सनम तो हो कोई अपना ख़ुदा तो हो इस दश्त ए बेकसी में कोई आसरा तो हो,
अक्स हर रोज़ किसी ग़म का पड़ा करता है दिल वो आईना कि चुप चाप तका करता है,
घटती बढ़ती रौशनियों ने मुझे समझा नहीं मैं किसी पत्थर किसी दीवार का साया नहीं, जाने किन रिश्तों