तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए…
तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए मुंतज़िर दिल की मुनाजात मुकम्मल हो जाए, उम्र भर
Occassional Poetry
तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए मुंतज़िर दिल की मुनाजात मुकम्मल हो जाए, उम्र भर
हाल ए दिल पे ही शायर बुनते है गज़ल जो बात दिल की समझते है वो सुनते है
बिखरे बिखरे सहमे सहमे रोज़ ओ शब देखेगा कौन लोग तेरे जुर्म देखेंगे सबब देखेगा कौन ? हाथ
ज़रीदे में छपी है एक ग़ज़ल दीवान जैसा है ग़ज़ल का फ़न अभी भी रेत के मैदान जैसा
ज़िन्दगी दी है तो जीने का हुनर भी देना पाँव बख्शे है तो तौफ़ीक ए सफ़र भी देना,
दुश्मन मेरी ख़ुशियों का ज़माना ही नहीं था तुमने भी कभी अपना तो जाना ही नहीं था, क्या
ना जाने कैसी तक़दीर पाई है जो आया आज़मा के चला गया, कल तक गले लगाने वाला भी
तनाव में जब आ जाए तो धागे टूट जाते है ज़रा सी बात पर पुराने रिश्ते टूट जाते
काँटो की चुभन पे फूलो का मज़ा भी दिल दर्द के मौसम में रोया भी हँसा भी, आने
गर हक़ चाहते हो तो फिर जंग लड़ो गुहार लगाने से कहाँ ये निज़ाम बदलेगा, छाँव ढूँढ़ते हो,