न है बुतकदा की तलब मुझे न हरम के दर की तलाश है
न है बुतकदा की तलब मुझे न हरम के दर की तलाश है जहाँ लुट गया है सुकून
Life Poetry
न है बुतकदा की तलब मुझे न हरम के दर की तलाश है जहाँ लुट गया है सुकून
अब तो कोई भी किसी की बात नहीं समझता अब कोई भी किसी के जज़्बात नहीं समझता, अपने
हर एक ने कहा क्यूँ तुझे आराम न आया सुनते रहे हम लब पे तेरा नाम न आया,
ज़बान ए ग़ैर से क्या शरह ए आरज़ू करते वो ख़ुद अगर कहीं मिलता तो गुफ़्तुगू करते, वो
ग़म ए दौराँ ने भी सीखे ग़म ए जानाँ के चलन वही सोची हुई चालें वही बे साख़्तापन,
फ़नकार ख़ुद न थी मेरे फ़न की शरीक थी वो रूह के सफ़र में बदन की शरीक थी,
तेरी तलाश में हर रहनुमा से बातें कीं ख़ला से रब्त बढ़ाया हवा से बातें कीं, कभी सितारों
अब जी हुदूद ए सूद ओ ज़ियाँ से गुज़र गया अच्छा वही रहा जो जवानी में मर गया,
वो अहद अहद ही क्या है जिसे निभाओ भी हमारे वादा ए उलफ़त को भूल जाओ भी भला
हम तुम्हारे ग़म से बाहर आ गए हिज्र से बचने के मंतर आ गए, मैं ने तुम को