खेल दोनों का चले तीन का दाना न पड़े
खेल दोनों का चले तीन का दाना न पड़े सीढ़ियाँ आती रहें साँप का ख़ाना न पड़े, देख
Life Poetry
खेल दोनों का चले तीन का दाना न पड़े सीढ़ियाँ आती रहें साँप का ख़ाना न पड़े, देख
रास्ते की धूल ने पैरों को ज़ख़्मी कर दिया बहर से माही अलग करना मुझे आता नहीं, बैठ
ज़ुल्फ़ ओ रुख़ के साए में ज़िंदगी गुज़ारी है धूप भी हमारी है छाँव भी हमारी है, ग़मगुसार
अपनों ने वो रंज दिए हैं बेगाने याद आते हैं देख के उस बस्ती की हालत वीराने याद
अफ़सोस तुम्हें कार के शीशे का हुआ है परवाह नहीं एक माँ का जो दिल टूट गया है,
आग है फैली हुई काली घटाओं की जगह बद दुआएँ हैं लबों पर अब दुआओं की जगह, इंतिख़ाब
वतन नसीब कहाँ अपनी क़िस्मतें होंगी जहाँ भी जाएँगे हम साथ हिजरतें होंगी, कभी तो साहिब ए दीवार
दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे फिर भी एक शख्स में क्या क्या नज़र
ज़ुल्फ़, अँगड़ाई, तबस्सुम, चाँद, आईना, गुलाब भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन सब का शबाब, पेट के
तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है सीना किस का है मेरी जान जिगर किस का