बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मेरा है
बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मेरा है आँखें भी मेरी ख़्वाब ए परेशाँ भी मेरा है, जो
Life Poetry
बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मेरा है आँखें भी मेरी ख़्वाब ए परेशाँ भी मेरा है, जो
अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया कि एक उम्र चले और घर नहीं आया, उस एक
अज़ाब ए वहशत ए जाँ का सिला न माँगे कोई नए सफ़र के लिए रास्ता न माँगे कोई,
मज़लूमों के हक़ मे अब आवाज़ उठाये कौन ? जल रही बस्तियाँ,आह ओ सोग मनाये कौन ? कौन
ज़ुल्म की हद ए इंतेहा को मिटाने का वक़्त है अब मज़लूमों का साथ निभाने का वक़्त है,
कभी झूठे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते ये बादल उड़ के आते हैं मगर साया नहीं
पैगम्बरों की राह पर चल कर न देखना या फिर चलो तो राह के पत्थर न देखना, पढ़ते
एक पल के लिए एक घड़ी के लिए वक़्त रुकता ही नहीं किसी के लिए, रात कितनी भी
गमों का लुत्फ़ उठाया है खुशी का जाम बाँधा है तलाश ए दर्द से मंज़िल का हर एक
आँख से टूट कर गिरी थी नींद वो जो मदहोश हो चुकी थी नींद, मेरी आँखों के क्यूँ