शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं

sham tak subah ki

शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं,

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है

zara saa qatara kahin

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है समुंदरों ही के लहजे में बात करता है, खुली छतों

दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता

dukh apna agar hum

दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता, पहुँचा है

वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता

wo mere ghar nahin

वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता मगर इन एहतियातों से तअ’ल्लुक़ मर नहीं

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे

apne chehre se jo

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे ? घर सजाने

क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता

kya dukh hai samundar

क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता,

मोहब्बत ना समझ होती है समझाना ज़रूरी है

mohabbat na samajh hoti

मोहब्बत ना समझ होती है समझाना ज़रूरी है जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है,

अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आइना हो जाऊँगा

apne har har lafz

अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आइना हो जाऊँगा उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो

इन्सान हूँ इंसानियत की तलब है

insan hoon insaniyat ki

इन्सान हूँ इंसानियत की तलब हैकिसी खुदाई का तलबगार नहीं हूँ, ख़ुमारी ए दौलत ना शोहरत का नशाअबतक

मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने

mohabbat tark ki mai

मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी