शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं
शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं,
Ghazals
शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं,
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है समुंदरों ही के लहजे में बात करता है, खुली छतों
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता, पहुँचा है
वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता मगर इन एहतियातों से तअ’ल्लुक़ मर नहीं
अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे ? घर सजाने
क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता,
मोहब्बत ना समझ होती है समझाना ज़रूरी है जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है,
अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आइना हो जाऊँगा उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो
इन्सान हूँ इंसानियत की तलब हैकिसी खुदाई का तलबगार नहीं हूँ, ख़ुमारी ए दौलत ना शोहरत का नशाअबतक
मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी