कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया, हम
कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया, हम
अब अहल ए दर्द ये जीने का एहतिमाम करें उसे भुला के ग़म ए ज़िंदगी का नाम करें,
दुश्मन की दोस्ती है अब अहल ए वतन के साथ है अब ख़िज़ाँ चमन में नए पैरहन के
मुझ से कहा जिब्रील ए जुनूँ ने ये भी वहइ ए इलाही है मज़हब तो बस मज़हब ए
रहते थे कभी जिन के दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह बैठे हैं उन्ही के
मसर्रतों को ये अहल ए हवस न खो देते जो हर ख़ुशी में तेरे ग़म को भी समो
ये रुके रुके से आँसू ये दबी दबी सी आहें यूँही कब तलक ख़ुदाया ग़म ए ज़िंदगी निबाहें,
किसी ने भी तो न देखा निगाह भर के मुझे गया फिर आज का दिन भी उदास कर
मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए तेरा हाथ हाथ में आ गया
आह ए जाँ सोज़ की महरूमी ए तासीर न देख हो ही जाएगी कोई जीने की तदबीर न