जहाँ न तेरी महक हो उधर न जाऊँ मैं

जहाँ न तेरी महक हो उधर न जाऊँ मैं
मेरी सरिश्त सफ़र है गुज़र न जाऊँ मैं,

मेरे बदन में खुले जंगलों की मिट्टी है
मुझे सँभाल के रखना बिखर न जाऊँ मैं,

मेरे मिज़ाज में बे मानी उलझनें हैं बहुत
मुझे उधर से बुलाना जिधर न जाऊँ मैं,

कहीं पुकार न ले गहरी वादियों का सुकूत
किसी मक़ाम पे आ कर ठहर न जाऊँ मैं,

न जाने कौन से लम्हे की बददुआ है ये
क़रीब घर के रहूँ और घर न जाऊँ मैं..!!

~निदा फ़ाज़ली


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