तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है
तुझे अलग से जो सोचूँ अजीब लगता है,
जिसे न हुस्न से मतलब न इश्क़ से सरोकार
वो शख़्स मुझ को बहुत बदनसीब लगता है,
हुदूद ए ज़ात से बाहर निकल के देख ज़रा
न कोई ग़ैर न कोई रक़ीब लगता है,
ये दोस्ती ये मरासिम ये चाहतें ये ख़ुलूस
कभी कभी मुझे सब कुछ अजीब लगता है,
उफ़ुक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा
मुझे चराग़ ए दयार ए हबीब लगता है..!!
~जाँ निसार अख़्तर
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